आज यही युग धर्म हमारा
देव दुर्लभा भरत-भूमि का पितृभूमि का पुण्यभूमि का।
पूज्य पूर्वजों द्वारा निर्मित पावन मन्दिर मातृभूमि का॥
नष्ट-भ्रष्ट खण्डित होता वह तन-मन धन भी सब कुछ खोकर
गौरव रक्षा करें आज हम हो विरुद्घ चाहे जग सारा ॥१॥
जिसके कण-कण में अंकित है रामकृष्ण विक्रमादित्य सम।
माता के अगणित सपूत वे जिनके कारण जीवित हैं हम॥
वंशज उनके कहलाकर क्या इसको यूँ ही मिटने देगें।
नहीं नहीं चमकायेंगे फिर से सारे जग में न्यारा ॥२॥
जिस माता के स्नेह प्रेम से पोषित है हम सब के तन।
करती आज करुण आक्रन्दन धिक् हम सबका है यह यौवन
वह जीवन भी क्या जीवन है जो माता के काम न आये।
उठो मिटा दें दुःख माता के होवे जीवन सफल हमारा॥३॥
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