देव प्रार्थना-2

सर्वदेवनमस्कारः

देवपूजन के बाद सर्वदेव नमस्कार करना चाहिए । नमस्कार का उद्देश्य देव शक्तियों का सम्मान, उनके प्रति अपनी श्रद्धा का प्रकटीकरण तो है ही, अपने मन का, रुचि का झुकाव देवत्व की ओर करना भी है । हमारे मन में देवत्व से विपरीत अनर्थकारी आसुरी प्रवृत्तियों के प्रति भी झुकाव पैदा होता रहता है । उसे निरस्त करके पुनः कल्याणप्रद देवत्व के प्रति झुकाव-अभिरुचि पैदा करना भी एक पुरुषार्थ है । देव नमस्कार के समय ऐसे भाव रखे जाएँ ।
नमस्कार में छः देव दम्पतियों का तथा विशेष सामाजिक र्कत्तव्यों का वहन करने वाले देव तत्त्वों का सम्मान, अभिनन्दन, अभिवन्दन करते हुए मानवता के प्रति नमन-वन्दन की प्रक्रिया को पूरा किया गया है ।
१. विवेक को गणेश और उनकी पत्नी को सिद्धि-बुद्धि ।
२. समृद्धि और वैभव को लक्ष्मीनारायण ।
३. व्यवस्था और नियन्त्रण को उमा-महेश ।
४. वाणी और भावना को वाणी-हिरण्यगर्भ ।
५. कला और उल्लास को शची-पुरन्दर ।
६. जन्म और पालन कर्त्री देव प्रतिमाओं को माता-पिता कहा गया है ।

इन छः युग्मों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनकी उपयोगिता समझने-आवश्यकता अनुभव करने के लिए नमन-वन्दन किया जाए ।
‍७. कुल देवता-अपने वंश में उत्पन्न हुए महामानव ।
८. जीवन लक्ष्य को सरल बनाने वाले माध्यम -इष्ट देवता ।
९. शासन-संचालक-ग्राम देवता ।
१०. स्थान देवता-पंच, समाज सेवक ।
११. वास्तु देवता-शिल्पी, कलाकार, वैज्ञानिक ।
१२. किसी भी लोकमंगल कार्य में निरत परमार्थ परायण-सर्वदेव ।
१३. आदर्श चरित्र, सद्ज्ञान, साधनारत ब्राह्मण ।
१४. प्रेरणा और प्रकाश देने वाले स्थान या व्यक्ति तीर्थ ।
१५. मानवता की दिव्य चेतना-गायत्री ।
‍यह सब देव तत्त्व हुए ।

ॐ सिद्धि बुद्धिसहिताय श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः ।
ॐ उमामहेश्वराभ्यां नमः ।
ॐ वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
ॐ शचीपुरन्दराभ्यां नमः ।
ॐ मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः ।
ॐ कुलदेवताभ्यो नमः ।
ॐ इष्टदेवताभ्यो नमः ।
ॐ ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
ॐ स्थानदेवताभ्यो नमः ।
ॐ वास्तुदेवताभ्यो नमः ।
ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः ।
ॐ सर्वेभ्यस्तीर्थेभ्यो नमः ।
ॐ एतत्कर्म-प्रधान-श्रीगायत्रीदेव्यै नमः ।
ॐ पुण्यं पुण्याहं दीर्घमायुरस्तु ।

षोडशोपचारपूजनम्

देवशक्तियों एवं अतिथियों के पूजन-सत्कार के १६ उपचार भारतीय संस्कृति में प्रचलित हैं । अपनी स्थिति तथा अतिथि के स्तर के अनुरूप स्वागत उपचारों का निर्धारण किया जाता रहा है । देवपूजन में दो बातें ध्यान रखने योग्य हैं
देवताओं को पदार्थ की आवश्यकता नहीं, इसलिए उन प्रसंगों में उपेक्षा एवं प्रमाद न बरता जाए । कोई सम्पन्न और सम्माननीय अतिथि अपने यहाँ आए तो ‘उन्हें क्या कमी?’ कहकर उन्हें आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराने में उपेक्षा नहीं बरती जाती । जो है, उसे भावनापूर्वक, सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया जाता है । ऐसी ही सावधानी देवपूजन में रखी जाए ।
देवताओं को पदार्थों की भूख नहीं है, पदार्थों के समर्पण द्वारा जो भावना, श्रद्धा व्यक्त होती है, देवता उसी से सन्तुष्ट होते हैं । यह ध्यान में रखकर अच्छे पदार्थ देकर देवताओं पर एहसान का भाव नहीं आने देना चाहिए । श्रद्धा-समर्पण को प्रमुख मानकर उसे बनाये रखना आवश्यक है । अभाववश पदार्थों में कमी रह जाए, तो उसकी पूर्ति भावना द्वारा हो जाती है ।

पूजन के समय एक प्रतिनिधि पूजन करें, शेष सभी व्यक्ति भावनापूर्वक कार्यक्रम को सशक्त बनाएँ । पूजन के स्थान पर एक स्वयंसेवक रहे, जो पूजा उपचार का क्रम ठीक से क्रियान्वित करा सके । एक मन्त्र बोलकर, सम्बन्धित वस्तु चढ़ाने का समय देकर ही दूसरा मन्त्र बोला जाए ।

ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।
आवाहयामि, स्थापयामि॥१॥
आसनं समर्पयामि॥२॥
पाद्यं समर्पयामि॥३॥ अर्घ्यं समर्पयामि॥४॥
आचमनम् समर्पयामि॥५॥
स्नानम् समर्पयामि॥६॥
वस्त्रम् समर्पयामि॥७॥
यज्ञोपवीतम् समर्पयामि॥८॥
गन्धम् विलेपयामि॥९॥
अक्षतान् समर्पयामि॥१०॥
पुष्पाणि समर्पयामि॥११॥
धूपम् आघ्रापयामि॥१२॥
दीपम् दर्शयामि॥१३॥
नैवेद्यं निवेदयामि॥१४॥
ताम्बूलपूगीफलानि समर्पयामि॥१५॥
दक्षिणां समर्पयामि॥१६॥
सर्वाभावे अक्षतान् समर्पयामि॥

ततो नमस्कारम् करोमि
ॐ नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये, सहस्रपादाक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्रकोटीयुगधारिणे नमः॥

स्वस्तिवाचनम्

स्वस्ति- कल्याणकारी, हितकारी के तथा वाचन-घोषणा के अर्थों में प्रयुक्त होता है । वाणी से, उपकरणों से स्थूल जगत् में घोषणा होती है । मन्त्रों के माध्यम से सूक्ष्म जगत् में अपनी भावना का प्रवाह भेजा जाता है । सात्त्विक शक्तियाँ हमारे ईमान, हमारे कल्याणकारी भावों का प्रमाण पाकर अपने अनुग्रह के अनुकूल वातावरण पैदा करें, यह भाव रखें । अनुकूलता दो प्रकार से पैदा होती है-
(१)अवांछनीयता से बचाव ।
(२)वांछनीयता का योग ।

यह अधिकार भी देवशक्तियों को सौंपते हुए स्वस्तिवाचन करना चाहिए ।
सभी लोगों को दाहिने हाथ में अक्षत, पुष्प, जल दिया जाए । बायाँ हाथ नीचे रहे । सबके कल्याण की भावनाएँ मन में रखें । मन्त्र पूरा होने पर पूजा सामग्री सबके हाथों से लेकर एक तश्तरी में इकट्ठी कर ली जाए ।

ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे, प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे, निधीनां त्वा निधिपति हवामहे, वसोमम । आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्॥ -२३.१९
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः, स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः ।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्योऽअरिष्टनेमिः, स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । २५.१९
ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः । पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥ -१८.३६
ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः, श््नप्त्रे स्थो विष्णोः, स्यूरसि विष्णोर्ध्रुवोऽसि, वैष्णवमसि विष्णवे त्वा॥ -५.२१
ॐ अग्र्िनदेवता वातो देवता, सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता, वसवो देवता रुद्रा देवता, ऽऽदित्या देवता मरुतो देवता, विश्वेदेवा देवता, बृहस्पर्तिदेवतेन्द्रो देवता, वरुणो देवता॥ -१४.२०
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः, पृथिवी शान्तिरापः, शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः, शान्तिबर््रह्म शान्तिः, सर्वशान्तिः, शान्तिरेव शान्तिः, सा मा शान्तिरेधि॥ -३६.१७
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद्भद्रं तन्नऽआ सुव । ॐ शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः॥ सर्वारिष्टसुशान्तिर्भवतु । -३०.३

रक्षाविधानम्

जहाँ उत्कृष्ट बनने की, शुभ कार्य करने की आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि दुष्टों की दुष्प्रवृत्ति से सतर्क रहा जाए और उनसे जूझा जाए । दुष्ट प्रायः सज्जनों पर ही आक्रमण करते हैं, इसलिए नहीं कि देवतत्त्व कमजोर होते हैं, वरन् इसलिए कि वे अपने समान ही सबको सज्जन समझते हैं और दुष्टता के घात-प्रतिघातों से सावधान नहीं रहते, संगठित नहीं होते और क्षमा- उदारता के नाम पर इतने ढीले हो जाते हैं कि अनीति से लड़ने का साहस, शौर्य और पराक्रम ही उनमें से चला जाता है । इससे लाभ अनाचारी तत्त्व उठाते हैं ।
यज्ञ जैसे सत्कर्मों की अभिवृद्धि से ऐसा वातावरण बनता है, जिसकी प्रखरता से असुरता के पैर टिकने ही न पाएँ । इस आश्शंका में असुर-प्रकृति के विघ्न सन्तोषी लोग ही ऐसे षड्यन्त्र रचते हैं, जिसके कारण शुभ कर्म सफल न होने पाएँ ।
इस स्थिति से भी धर्मपरायण व्यक्ति को परिचित रहना चाहिए और संयम-उदारता, सत्य-न्याय जैसे आदर्शों को अपनाने के साथ-साथ ऐसी वैयक्तिक और सामूहिक सार्मथ्य इकट्ठी करनी चाहिए, जिससे दुष्टता को निरस्त किया जा सके । इसी सतर्कता और तत्परता का नाम रक्षा विधान है । दसों दिशाओं में विघ्नकारी तत्त्व हो सकते हैं, उनकी ओर दृष्टि रखने, उन पर प्रहार करने की तैयारी के रूप में सब दिशाओं में मन्त्र-पूरित अक्षत फेंके जाते हैं । भगवान् से उन दुष्टों से लड़ने की शक्ति की याचना भी इस क्रिया-कृत्य में सम्मिलित है । बायें हाथ में अक्षत रखें, जिस दिशा की रक्षा का मन्त्र बोला जाए, उसी ओर अक्षत चड़ायेँ ।

ॐ र्पूवे रक्षतु वाराहः, आग्नेय्यां गरुडध्वजः ।
दक्षिणे पद्मनाभ्ास्तु, नैर्ऋत्यां मधुसूदनः॥१॥
पश्चिमे चैव गोविन्दो, वायव्यां तु जनार्दनः ।
उत्तरे श्रीपती रक्षेद्, ऐशान्यां हि महेश्वरः॥२॥
र्ऊध्वं रक्षतु धाता वो, ह्यधोऽनन्तश्च रक्षतु ।
अनुक्तमपि यत् स्थानं, रक्षत्वीशो ममाद्रिधृक्॥३॥
अपसर्पन्तु ते भ्ाूता, ये भूता भ्ाूमिसंस्थिताः ।
ये भूता विघ्न्रकर्तारः, ते गच्छन्तु शिवाज्ञया॥४॥
अपक्रामन्तु भूतानि, पिशाचाः सर्वतो दिशम् ।
र्सवेषामविरोधेन, यज्ञकर्म समारभे॥५॥

 

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