ब्रह्मदेव कृत सामूहिक यज्ञ

आज किसी ग्राम, नगर या जनपद विशेष में ही नहीं, किन्तु अखिल भारतीय स्तर पर ग्राम- ग्राम तथा नगर- नगर में लोक- कल्याणार्थ सामूहिक गायत्री यज्ञों में प्रसूत, सुगन्धित धूम्र वायु- मण्डल में व्याप्त होकर, सूक्ष्माकाश को स्वच्छ करता हुआ संसार को मंत्रपूत शुभ संदेश दे रहा है ।। दुर्भाग्य से इस प्रकार के शुभ कर्मों की पवित्र परम्परा एक लम्बी अवधि तक अवरुद्ध हो गई थी, क्योंकि विगत सहस्रों वर्षों से वैदिक धर्म पर घातक आक्रमण होते आये हैं ।। उसी का परिणाम है कि जगद्गुरु भारत की समुन्नत सभ्यता, सर्वमान्य संस्कृति और श्लाघनीय धर्म का रूप इतना अधिक विकृत हो गया कि स्वयं भारतवासी ही उसको सन्देह की दृष्टि से देखने लगे ।। चिरकाल पर्यन्त रहने के कारण हमारे विचार शनैः- शनैः इतने संकुचित हो गये कि हम भगवती श्रुति के अध्ययन और यज्ञ के करने- कराने पर भी एक जाति या सम्प्रदाय विशेष पर ही आधिपत्य मानने लग गये ।। इसी कारण आज भी धर्म के ठेकेदार बनने वाले कुछ महानुभावों से सुना जाता है कि सामूहिक यज्ञ, द्विजेतर जातियों की उपस्थिति में वैदिक मन्त्रों का उच्चारण, श्रमदान आदि के सहयोग से यज्ञ करना एवं स्त्रियों को यज्ञ में सम्मिलित करना ठीक नहीं ।।

पौराणिक वाङ्मय में विभिन्न स्थलों पर इसके स्पष्ट प्रमाण समुपलब्ध होते हैं कि भारत में विश्व कल्याणार्थ सामूहिक यज्ञों की परम्परा सनातन है ।। विधर्मियों के शासनकाल से धीरे- धीरे इस परमपुनीत- परम्परा का लोप होता गया है, तत्काल स्वरूप एक समय ऐसा आ गया कि विश्व कल्याणार्थ सामूहिक यज्ञों की परम्परा पर भी कुछ व्यक्ति यों ने आश्चर्य करना प्रारम्भ कर दिया ।। पद्म पुराण से उद्धत एक सामूहिक यज्ञ का वर्णन प्रस्तुत करते है ।। इसके अध्ययन से प्रमाणित होता है कि यह सामूहिक यज्ञ परम्परा नई नहीं है ।।

स्थान- स्थान पर आज जिन सामूहिक यज्ञ आयोजनों से हम लाभान्वित हो रहे हैं, उन्हीं यज्ञों के प्रेरणा- स्रोतों में से एक का वर्णन पढ़ा करते हैं ।। प्रसंगवश चर्चा होने पर भीष्मजी ने यज्ञ के विषय में महर्षि पुलस्त्य से पूछा- ब्रह्मन्

कथं यज्ञो हि देवेन विभुना तत्र कारिताः ।। के सदस्या ऋत्विजश्च ब्राह्मणाः के समागताः॥
के भागास्तस्य यज्ञस्य किं द्रव्यं का च दक्षिणा का ।। वेदी किं प्रमाणं च कृतं तत्र विंरचिना॥

ब्राह्मण ने यज्ञ कैसे किया? ऋत्विज् और ब्राह्मण कौन- कौन थे? उस यज्ञ के विभाग क्या- क्या थे? द्रव्य और दक्षिणा क्या थी? वेदी कितने प्रमाण की थी? तथा-

कंच कामम् भिध्या यन्वेधा यज्ञं चकार हे ।।

हे महर्षि ! ब्रह्माजी ने किस कामना के उद्देश्य से यज्ञ किया?
भीष्मजी द्वारा पूछे गए महान प्रश्नों के उत्तर में महर्षि पुलस्त्य उस कारण को बताते हैं, जिस कामना से यज्ञ किया गया था ।। महर्षि कहते हैं-

हितार्थ सुर मर्त्यानां लोकानां प्रभवाय च ।।

देवताओं और मनुष्यों के हित के लिए तथा लोक- कल्याण के लिए यह यज्ञ ब्रह्माजी ने किया था ।। वही लोक कल्याण की उदात्त भावना आज भी भारतीयों के हृदय में व्याप्त है, क्योंकि आदि काल से ही भारतवर्ष में लोक कल्याणार्थ कार्य के पाठ पढ़ायें जाते रहे हैं ।। सामूहिक यज्ञों द्वारा लोक कल्याण की जो पुनीत परम्परा हमारे पूर्वजों ने स्थापित की थी, उसी का फल है कि इस कलि काल में भी हमने सहस्र कुण्डीय जैसे विशाल यज्ञ दर्शन किए जिस प्रकार विश्व कल्याणार्थ हुए सहस्र कुण्डीय यज्ञ में दूर- दूर से अनेक विद्वान विचारक और संत महात्मा एकत्रित हुए थे और ऋषियों के नाम पर बनाये हुए नगरों में ठहरे थे, इसी प्रकार ब्रह्मदेव द्वारा आयोजित उस यज्ञ लोक- कल्याण की भावना से अनेक ऋषि मुनि आदि एकत्रित हुए थे ।।

ब्रह्माथ कपिलश्चैव परमेष्ठी तथैव च ।। देवाः सप्तर्षयश्चैव त्र्यम्बकश्च महायशाः॥
सनत्कुमारश्च महानुभावा, मनुर्महात्मा भगवान्प्रजा पतिः ।। पुराण देवोऽथ तथा प्रचके्र, प्रदीप्त वैश्वानरः तुल्य तेजाः॥

कपिलजी, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि आदि सप्तऋषि, त्र्यम्बक, सनत्कुमार आदि महानुभाव महात्मा मनु प्रजापति तथा प्रतीप्त वैश्वानरः तुल्य तेज युक्त पुराण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु आदि भी उस यज्ञ में पधारे थे ।।

ब्रह्मदेव कृत यज्ञ के प्रतिरक्षणार्थ ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु से अत्यन्त विनम्र शब्दों में प्रमाण पूर्वक निवेदन किया-

उत्फुल्लामल पद्माक्षं शत्रु क्षयावह ।।
यथा यज्ञेय मेध्वंसो दानवैश्च विधीते ॥
तथा त्वया विधातव्यं प्रणतस्य नमोस्तुते ॥

हे पद्माक्षं ! शत्रु पक्ष क्षयावह ! कृपया आप ऐसा कोई प्रबंध कीजिए, जिससे यज्ञ की दानवों से रक्षा हो सके ।। इतना सुनते ही भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को आश्वासन देते हुए कहा-

भयं त्यजस्व देवेश क्षयं नेष्यामि दानवान् ।।
ये यान्ये विघ्न कर्तारो यातुधानास्तथा सुराः ॥
घातयिष्याम्यहं सर्वान्स्वस्ति तेस्तुपितामह॥

देवेश! आप निर्भय रहें ।। मैं दानवों को नष्ट कर दूँगा ।। पितामह ! यातुधानादि अन्य असुर जो विघ्न कर्ता हैं, उनको भी समाप्त कर दूँगा, आप निश्चिन्त रहें ।। इस प्रकार आसुरी शक्तियों के आक्रमण की प्रति रक्षा का भार स्वयं भगवान ने ले लिया और सहायातार्थ वही स्थित हो गये ।। मथुरा महायज्ञ में भी असुरों ने कम उपद्रव नहीं थे, पर भगवान ने उन सब का संरक्षण किया ।।

जिस प्रकार विभिन्न समाजों और संप्रदायों के लाखों व्यक्ति, इस युग के अपूर्व सहस्र कुण्डीय यज्ञ के दर्शनों के लिए, तथा १०८ कुण्डीय व अश्वमेध यज्ञों में एकत्र होते रहे हैं, उसी प्रकार देव, दानव, गन्धर्व आदि अनेक जातियों के दर्शनार्थी, ब्रह्मदेव कृत उस यज्ञ के दर्शनार्थ वहाँ एकत्रित हुए थे-

तातो देवाः समायाता दानवा राक्षसैस्सह ।।
भूत प्रेत पिशाचाश्च सर्वेतत्रागताः क्रमात ॥
गन्धर्वा प्सरश्चैव मुनयों वेद पारगः ।।
ऋषयो ब्रह्मर्ष यश्चैव द्विजा देवर्षयस्तथा॥

देव, दानव, राक्षस, भूत प्रेत, पिशाच, अप्सरा गण, नाग, विद्याधरण, वनस्पति, औषधि, यज्ञ, पर्वत आदि सभी उस यज्ञ में एकत्रित हुए थे ।।

वह महायज्ञ किसी व्यक्ति या समाज विशेष के लिए न होकर, सकल, चराचर के कल्याण के लिए था ।। इसीलिए सभी ने उसमें स्वेच्छया अपना- अपना यथोचित सहयोग प्रदान किया था ।। मथुरा यज्ञ भी सभी के सहयोग से सम्पन्न हुआ ।।

स्वयं च वरुणो रत्नं दक्षश्चान्नं स्वयं ददौ ।।
उस यज्ञ में स्वयं करुण ने रत्न दिये तथा दक्ष ने अन्न, दिया ।।
अन्न पाचन कृत्यसोमोमतिदाता बृहस्पतिः ।।

अन्न पाचन का कार्य चन्द्रमा ने एवं सलाहकार का कार्य देव गुरु बृहस्पति ने किया ।।

धन दानं धनाध्यक्षों वस्त्राणि विविधानि च ।।

विविध प्रकार के वस्त्रों और धन का दान धनाध्यक्ष कुबेर ने किया ।।

विश्व कर्माणमाहूय ब्रह्मणः शीर्ष मुण्ड ।।

विश्वकर्मा को बुलाकर क्षौर कर्म कराया गया ।। विभिन्न विभागों के अध्यक्षों की नियुक्ति याँ इस प्रकार की गईं ।।

द्वाराध्यक्षं तथा शंकर वरुणं रसदायकं ।।
वित्त प्रदं वैश्रवणं पवनं गंध दायिनम्॥
उद्योत कारिणं सूर्यं प्रभुत्वे माधवः स्थितः ॥

द्वाराध्यक्ष- इन्द्र रसाध्यक्ष- कुबेर, सुगन्ध आदि स्वच्छि करण वस्तुओं के अध्यक्ष- वायु, प्रकाशाध्यक्ष सूर्य तथा सर्वाधिकारी पद पर भगवान विष्णु को नियुक्त किया गया ।।

विभागाध्यक्षों की नियुक्ति यों के पश्चात् सभी ने अपने- अपने आसन ग्रहण कर लिए ।। यथा देवताओं के समीप ही ऋषियों के आसन थे ।। ब्रह्माजी के दक्षिण पार्श्व में सनातन विष्णु का स्थान था तथा ब्रह्माजी के वाम पार्श्व में पिनाकी भगवान शंकर विराजमान थे ।। जब सबने अपने- अपने आसन ग्रहण कर लिए, तब ऋत्विजों का वरण किया गया ।।

ब्रह्मणा पूजिताः सर्वे प्रणिपात पुरः सरमा ।।
अनुगृह्यो भवद्भिस्तु सर्वेरस्मिन क्रताविह॥

ब्रह्माजी ने सबको प्रणाम कर उनकी पूजा की और कहा कि आप लोगों ने इस यज्ञ में पधारने की कृपा की है, इसके लिए मैं आपका अनुगृहीत हूँ ।। देवताओं की तरह चारों वर्ण ने भी निज- निज योग्यतानुसार, विश्व कल्याण के लिए आयोजित उस सामूहिक महायज्ञ में सहयोग दिया ।। ब्राह्मणों ने वेदघ्वनि की ।। क्षत्रियों ने सायुज्य स्थित होकर प्रतिरक्षा के उत्तरदायित्व में सहयोग दिया ।। वैश्यों ने विविध प्रकार के सरस व्यंजन आदि के माध्यम से अपना सहयोग दिया ।। वैश्यों द्वारा कृत कार्य तो इतना अपूर्व और प्रागदृष्ट था कि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर उनका नामकरण ही प्रागवाट कर दिया-

जश्रुतं प्रागदृष्टं च दृष्टवा तुष्टः प्रजापतिः
प्राग्वाटेति ददौ नाम वैश्यानां सृष्टि कृद्विभुः॥

शूद्रवर्ण ने भी आवश्यक सहयोग देकर अन्य वर्ण के समान पुण्य फल प्राप्त किया था ।।
उपयुक्त उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि यहाँ शुद्र भी उपस्थित थे और उन्हीं की उपस्थिति में-

महर्षयो वीत शोक वेदानुच्चै वाचयन ।।

वीत शोक महर्षियों ने वेदों को उच्च स्वर से पढ़ा और वह उच्च भी इतना अधिक शक्ति सम्पन्न था कि उसका प्रसारण तीनों लोकों में हो गया, तीनों लोकों में स्वर का प्रसारण आलंकारिकता दृष्टिगोरचर नहीं होती है कि वेद मन्त्रों का उच्चारण उच्च स्वर से किया गया ।।

ब्रह्मघोषेणते विप्रा नादयन्तस्त्रि विष्टपम् ।।

जब वह वेद ध्वनि तीनों लोकों में ही व्याप्त हो गई तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वहाँ पर स्थित शूद्रों ने उसे न सुना हो ।। अर्थात शूद्रों ने भी वह वेद ध्वनि अवश्य सुनी ।। इससे सिद्ध होता है कि उच्च स्वर से वेद मन्त्रों का उच्चारण करना, वह भी शूद्रों की उपस्थिति में, यदि शास्त्र विरुद्ध होता तो ब्रह्मदेव द्वारा कृत उस यज्ञ में धर्म शास्त्रों के रचयिता यह कार्य शूद्रों की उपस्थित थे, यदि किसी के भी मत में उक्त कार्य अनुचित होता तो उसके विरोध का विवरण भी इस यज्ञ- वर्णन में मिलता ।।

विश्व- कल्याण की भावना से अभि प्रेरित होकर अन्य वर्ण की तरह ही द्विजेतर जातियों ने भी अपना- अपना सहयोग ही दिया था ।। यज्ञ- प्रबन्धकों ने भी उनका सहयोग आवश्यकतानुसार सहर्ष अङ्गीकार किया था ।। तथा उनकी उपस्थिति में ही उच्च स्वर से वेदोच्चारण किया था ।। द्विजेतर जातियों की उपस्थित में मन्त्रोच्चारण की परम्परा प्रातः स्मरणीय ऋषि- महर्षियों द्वारा ही स्थापित की हुई है ।। यह गायत्री परिवार का कोई अभिनव प्रयोग नहीं है ।। यह परम्परा ऋषि- मुनियों द्वारा स्थापित होने के कारण शास्त्रीय है और शास्त्रीय होने के कारण ग्राह्य है ।।

ब्रह्मा जी द्वारा कृत उस महायज्ञ का कार्य प्रारम्भ होने की बेला सन्निकट आ गई, किन्तु तब तक जब ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री यज्ञ- मण्डप में नहीं पहुँची तो-

सुसत्कृता च पत्नी सा सावित्री च वरांगना ।।
अध्वर्युणा समाहूता एहि दैवि त्वरान्विता॥

सम्यक् प्रकार से राजी हुई सावित्री को अध्र्वयु पुलस्त्य ने बुलाया, देवि! यहाँ शीघ्र आओ ।। किन्तु

व्यग्रा सा कार्य करणे स्त्री स्वभावेन नागता ।।

स्त्री स्वभाव से गृह कार्य में व्यस्त वह सावित्री नहीं आई ।। गृह कार्यों में व्यस्त रहने के कारण सावित्री न आ सकी, यह मुख्य कारण नहीं था ।। उसके न आने का मुख्य कारण था, अपनी सहेलियों की प्रतीक्षा करना ।। सावित्री को प्रतीक्षाकाल में भी निश्चेष्ट रहना अनुचित को प्रतीत हुआ अतः उसने गृह कार्य करना भी प्रारम्भ कर दिया, और पुलस्त्यजी के बुलाने पर उसने कहा-

लक्ष्मीरद्यापिना याता पत्नी नारायणस्य या ।।
अग्नेः पत्नी तथा स्वाहा धूम्रोर्णतु यमस्यतु ।। ।।
वारुणी वै तथा गौरी वायर्वै सुप्रभातथा ।।
ऋषिर्द्धवै श्रवणी भार्या शम्भी गौरी जगत्पि्रया॥
मेधा श्रद्धा विभूतिश्च अनसूया धृतिः क्षमा ।।
गंगा सरस्वती चैव नद्या याताश्च कन्यका॥
इन्द्राणी चन्द्र पत्नीतु रोहिणी शशिनः प्रिया ।।
अरुन्धती बसिष्ठस्य सप्तर्षीणां च याः स्त्रिय॥
अनसूया त्रिपत्नी च तथान्या प्रमदा इह ।।
वध्वो दुहितरश्चैव सख्यो भगिनि कास्तथा॥
नाहमेकाकिनी यास्ये यावयां तिताः स्त्रियः ।।
बूहि गत्वा विरचिंतु तिष्ठता वन्मुहूर्तकम॥

नारायण की पत्नी लक्ष्मी, अग्नि की पत्नी स्वाहा, यम की पत्नी धूम्रोप्पाँ अभी तक नहीं आई हैं ।। वारुणी, गौरी, सुप्रभा, ऋद्धि, वैश्रवणी, मेधा, श्रद्धा, विभूति, अनसूया, धृति, क्षमा, गंगा, सरस्वती, भी अभी तक नहीं आईं ।। मैं अकेली नहीं आउँगी, अतः आप जाकर ब्रह्माजी से कह दें कि कुछ देर ठहरें ।।
ऐसा सुनकर पुलस्त्य जी ने ब्रह्माजी से कहा-

सावित्री व्याकुला देव प्रसक्त गृह कर्मणि ।।
सख्योनाभ्यागता यावत्तावन्नमनं मम॥

देव! सावित्री की सखियाँ भी अभी तक नहीं आई हैं! अतः उसने कहा है कि जब तक सखियाँ नहीं आती हैं, तब तक मेरा आगमन भी नहीं हो सकता ।।
केवल यजमान की स्त्री ही यज्ञ में सम्मिलित हो सकती है, यदि ऐसा नियम होता तो सावित्री अपनी सखियाँ, अनसूयादि की प्रतिक्षा नहीं करतीं और हवन कार्य में सम्मिलित हो जातीं ।।
अनसूया, अरुन्धति आदि सप्तर्षियों की स्त्रियाँ, वारुणी गौरी प्रभूति महिलाएँ जब सतयुग में ही यज्ञ में सम्मिलित हो सकती थीं, तो फिर इस युग में स्त्रियों का यज्ञ में सम्मिलित होना धर्म- शास्त्रों को मर्यादा के प्रतिकूल कैसे हो सकता है? स्त्रियों को वेदाधिकार से वञ्चित रखना- वेद विरुद्ध है ।। ऋषि मुनियों द्वारा स्थापित परम्परा के विरुद्ध है, स्त्रियों का यज्ञ में बैठना, बैदिक मन्त्रों का शूद्रों की उपस्थिति में उच्चारण करना, सामूहिक यज्ञ करना आदि- आदि प्रवृत्तियाँ सदा से ही चलती आ रही हैं ।। उर्पयुक्त कतिपय उद्धरणों से स्पष्ट विदित होता है, कि पुरुषों के समान स्त्रियों को भी वेदाध्ययन और यज्ञ करने का अधिकार है ।। प्रत्युत देवता आदर्श ऋषि मुनियों द्वारा कर्तव्य हो जाता है कि हम भी स्त्रियों को विश्व- कल्याण और आत्म- कल्याण के लिए वेद विहित कर्मों को पालन करने के लिए अधिक से अधिक प्रोत्ससाहित करें ।। ऐसा करने से वेद- शास्त्र की मर्यादओं का पालन होगा ।। देश और समाज के उन्नयन में हर सहयोग देकर अभ्युदय और निः श्रेयश की प्राप्त करेंगे ।

Blog at WordPress.com.