देव प्रार्थना-3

अग्निस्थापनम्

यज्ञाग्नि को ब्रह्म का प्रतिनिधि मानकर वेदी पर उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं । उसी भाव से अग्नि की स्थापना का विधान सम्पन्न करते हैं । जब कुण्ड में प्रथम अग्नि-ज्योति के दर्शन हों, तब सब लोग उन्हें नमस्कार करें ।

अग्नि स्थापना से पूर्व कुण्ड में समिधाएँ इस कुशलता से चिननी चाहिए कि अग्नि प्रदीप्त होने में बाधा न पड़े । अग्नि के ऊपर पतली सूखी लकड़ी रखी जाएँ, ताकि अग्नि का प्रवेश जल्दी हो सके । एक चम्मच में कपूर अथवा घी में भीगी हुई रुई की मोटी बत्ती रखी जाए, उसमें अग्नि जलाकर स्थापित किया जाए । ऊपर पतली लकड़ी लगाने से अग्नि प्रवेश में सुविधा होती है ।

ॐ र्भूभुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना, पृथ्ावीव वरिम्णा । तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि, पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे । अग्निं दूतं पुरोदधे, हव्यवाहमुपब्रुवे । देवाँऽआसादयादिह । -३.५, २२.१७
ॐ अग्नये नमः । आवाहयामि, स्थापयामि, ध्यायामि ।

तदुपरान्त गन्ध, अक्षत-पुष्प आदि से अग्निदेवता की पूजा करें
गन्धाक्षतम्, पुष्पाणि, धूपम्, दीपम्, नैवेद्यम् समर्पयामि ।

गायत्री स्तवनम्

इस स्तवन (आ०हृ०स्तो०) में गायत्री महामन्त्र के अधिष्ठाता सविता देवता की प्रार्थना है । इसे अग्नि का अभिवन्दन, अभिनन्दन भी कह सकते हैं । सभी लोग हाथ जोड़कर स्तवन की मूल भावना को हृदयगंम करें । हर टेक में कहा गया है- ‘वह वरण करने योग्य सविता देवता हमें पवित्र करें ।’ दिव्यता-पवित्रता के संचार की पुलकन का अनुभव करते चलें ।

यन्मण्डलं दीप्तिकरं विशालम्, रतनप्रभं तीव्रमनादिरूपम् ।
दारिद्र्य-दुःखक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१॥
शुभ ज्योति के पंुज, अनादि, अनुपम । ब्रह्माण्ड व्यापी आलोक कर्त्ता ।
दारिद्र्य, दुःख भय से मुक्त कर दो । पावन बना दो हे देव सविता॥१॥

यन्मण्डलं देवगणैः सुपूजितम्, विप्रैः स्तुतं मानवमुक्तिकोविदम् ।
तं देवदेवं प्रणमामि भ्ार्गं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥२॥
ऋषि देवताओं से नित्य पूजित । हे भर्ग! भव बन्धन मुक्ति कर्त्ता ।
स्वीकार कर लो वन्दन हमारा । पावन बना दो हे देव सविता॥२॥

यन्मण्डलं ज्ञानघनं त्वगम्यं, त्रैलोक्यपूज्यं त्रिगुणात्मरूपम् ।
समस्त-तेजोेमय-दिव्यरूपं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥३॥
हे ज्ञान के घन, त्रैलोक्य पूजित । पावन गुणों के विस्तार कर्त्ता ।
समस्त प्रतिभा के आदि कारण । पावन बना दो हे देव सविता॥३॥

यन्मण्डलं गूढमतिप्रबोधं, धर्मस्य वृद्धिं कुरुते जनानाम् ।
यत् सर्वपापक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥४॥
हे गूढ़ अन्तःकरण में विराजित । तुम दोष-पापादि संहार कर्त्ता ।
शुभ धर्म का बोध हमको करा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥४॥

यन्मण्डलं व्याधिविनाशदक्षं, यदृग्-यजुः सामसु सम्प्रगीतम् ।
प्रकाशितं येन च र्भूभुवः स्वः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥५॥
हे व्याधि-नाशक, हे पुष्टि दाता । ऋग् साम, यजु वेद संचार कर्त्ता ।
हे भ्र्ाूभुवः स्वः में स्व प्रकाशित । पावन बना दो हे देव सविता॥५॥

यन्मण्डलं वेदविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण- सिद्धसङ्घाः ।
यद्योगिनो योगजुषां च सङ्घाः, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥६॥
सब वेदविद्, चारण, सिद्ध योगी । जिसके सदा से हैं गान कर्त्ता ।
हे सिद्ध सन्तों के लक्ष्य शाश्वत् । पावन बना दो हे देव सविता॥६॥

यन्मण्डलं सर्वजनेषु पूजितं, ज्योतिश्च कुर्यादिह र्मत्यलोके ।
यत्काल-कालादिमनादिरूपम्, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥७॥
हे विश्व मानव से आदि पूजित । नश्वर जगत् में शुभ ज्योति कर्त्ता ।
हे काल के काल-अनादि ईश्वर । पावन बना दो हे देव सविता॥७॥

यन्मण्डलं विष्णुचर्तुमुखास्यं, यदक्षरं पापहरं जनानाम् ।
यत्कालकल्पक्षयकारणं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥८॥
हे विष्णु ब्रह्मादि द्वारा प्रचारित । हे भ्ाक्त पालक, हे पाप हर्त्ता ।
हे काल-कल्पादि के आदि स्वामी । पावन बना दो हे देव सविता॥८॥

यन्मण्डलं विश्वसृजां प्रसिद्धं, उत्पत्ति-रक्षा प्रलयप्रगल्भम् ।
यस्मिन् जगत्संहरतेऽखिलं च, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥९॥
हे विश्व मण्डल के आदि कारण । उत्पत्ति-पालन-संहार कर्त्ता ।
होता तुम्हीं में लय यह जगत् सब । पावन बना दो हे देव सविता॥९॥

यन्मण्डलं सर्वगतस्य विष्णोः, आत्मा परंधाम विशुद्धतत्त्वम् ।
सूक्ष्मान्तरैर्योगपथानुगम्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१०॥
हे स्ार्वव्यापी, प्रेरक नियन्ता । विशुद्ध आत्मा, कल्याण कर्त्ता ।
शुभ योग पथ्ा पर हमको चलाओ । पावन बना दो हे देव सविता॥१०॥

यन्मण्डलं ब्रह्मविदो वदन्ति, गायन्ति यच्चारण-सिद्धसंघाः ।
यन्मण्डलं वेदविदः स्मरन्ति, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥११॥
हे ब्रह्मनिष्ठों से आदि पूजित । वेदज्ञ जिसके गुणगान कर्त्ता ।
सद्भावना हम सबमें जगा दो । पावन बना दो हे देव सविता॥११॥

यन्मण्डलं वेद- विदोपगीतं, यद्योगिनां योगपथानुगम्यम् ।
तत्सर्ववेदं प्रणमामि दिव्यं, पुनातु मां तत्सवितुर्वरेण्यम्॥१२॥
हे योगियों के शुभ मार्गदर्शक । सद्ज्ञान के आदि संचारकर्त्ता ।
प्रणिपात स्वीकार लो हम सभ्ाी का । पावन बना दो हे देव सविता॥१२॥

अग्नि प्रदीपनम्

जलती हुई प्रदीप्त अग्नि में ही आहुति दी जाती है । पंखे से हवा करके समिधाओं में सुलगती हुई अग्नि को प्रदीप्त करते हैं । धुएँ वाली अधजली आग में आहुतियाँ नहीं दी जातीं ।
जीवन दीप्तिमान्, ज्वलनशील, प्रचण्ड, प्रखर और प्रकाशमान जिया जाना चाहिए, चाहे थोड़े ही दिन का क्यों न हो । धुआँ निकालती हुई आग एक वर्ष जले, इसकी अपेक्षा एक क्षण का प्रकाशयुक्त ज्वलन अच्छा । अपनी प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत् करने की प्रेरणा इस अग्नि प्रदीपन में है ।

ॐ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि, त्वमिष्टा र्पूते स सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्, विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत । -१५.५४, १८.६१

समिधाधानम्

यज्ञपुरुष अग्निदेव के प्रकट होने पर पतली छोटी चार समिधाएँ घी में डुबोकर एक-एक करके चार मन्त्रों के साथ चार बार में समर्पित की जाएँ ।
ये चार समिधाएँ चार तथ्यों को अग्निदेव की साक्षी में स्मरण करने के लिए चढ़ाई जाती हैं ।

(१) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास की व्यवस्था को पूर्ण करना ।
(२) धर्म, अर्थ, काम मोक्ष को प्राप्त करा सकने वाला जीवनक्रम अपनाना ।
(३) साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा-इन चारों का अवलम्बन ।
(४) शरीरबल, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मबल-इन चारों विभूतियों के लिए प्रबल-पुरुषार्थ ।

इन चारों उपलब्धियों को यज्ञ-रूप बनाना, यज्ञ के लिए समर्पित करना चार समिधाओं का प्रयोजन है । इस लक्ष्य को चार समिधाओं द्वारा स्मृतिपटल पर अंकित किया जाता है । स्नेहसिक्त, चिकना, लचीला, सरल अपना व्यक्तित्व हो, यह प्रेरणा प्राप्त करने के लिए स्नेह-घृत में डुबोकर चार समिधाएँ अर्पित की जाती हैं । भावना की जाए कि घृतयुक्त समिधाओं में जिस प्रकार अग्नि प्रदीप्त होती है, उसी प्रकार उर्पयुक्त क्षमताएँ अपने संकल्प और देव अनुग्रह के संयोग से साधकों को प्राप्त हो रही हैं ।
समिधाधान वह करता है, जो घी की आहुति देने के लिए मध्य में बैठता है । जल प्रसेचन तथा आज्याहुति की सात घृत आहुतियाँ भी वही देता है ।

१-ॐ अयन्त इध्म आत्मा, जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व । चेद्ध वर्धय चास्मान् प्रजया, पशुभिबर््रह्मवर्चसेन, अन्नाद्येन समेधय स्वाहा । इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम । -आश्व०गृ०सू० १.१०
२- ॐ समिधाऽग्निं दुवस्यत, घृतैर्बोधयतातिथिम् । आस्मिन् हव्या जुहोतन स्वाहा । इदं अग्नये इदं न मम॥
३- ॐ सुसमिद्धाय शोचिषे, घृतं तीव्र जुहोतन । अग्नये जातवेदसे स्वाहा । इदं अग्नये जातवेदसे इदं न मम॥
४- ॐ तं त्वा समिद्भिरङ्गिरो, घृतेन वर्धयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठ्य स्वाहा । इदं अग्नये अंगिरसे इदं न मम॥ -३.१.३

जलप्रसेचनम्

अग्नि और जल का युग्म है । यज्ञ अग्नि और गायत्री जल है । इन्हें ज्ञान और कर्म भी कह सकते हैं।
इस युग्म को-
(१) तेजस्विता-मधुरता
(२) पुरुषार्थ-सन्तोष
(३) उपार्जन- त्याग
(४) क्रान्ति-शान्ति भी कह सकते हैं ।

प्रोक्षणी पात्र (बिना हत्थे वाला चम्मच जैसा उपकरण) में पानी लेकर निम्न मन्त्रों से वेदी के बाहर चारों दिशाओं में डालें । भावना करें कि अग्नि के चारों ओर शीतलता का घेरा बना रहे हैं । जिसका परिणाम शान्तिदायी होगा ।
ॐ अदितेऽनुमन्यस्व॥ (इति र्पूवे)
ॐ अनुमतेऽनुमन्यस्व॥ (इति पश्चिमे)
ॐ सरस्वत्यनुमन्यस्व॥ (इति उत्तरे)
ॐ देव सवितः प्रसव यज्ञं, प्रसुव यज्ञपतिं भगाय । दिव्यो गन्धर्वः केतपूः, केतं नः पुनातु, वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ (इति चतुर्दिक्षु)-१.१.७

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